First Hindi poem
तुमने कह तो दिया अब ये दौर और नही
तुम बस इतना तो कर जाओ अब
कि मिटा जाओ मेरे ज़हन से गुज़रे दौर की छवि
वो जो खुशबू बसी है मन में तुम्हारी सादगी की
वो जो रौनक जुड़ी है तुमसे मेरे संसार की
वो जो घुलें हैं रंग तुम्हारे एहसास से
वो घड़ियां जो संग बिताई
और वो जो इंतज़ार में बिताई
वो जब सावन आया तुम साथ थीं
और हाँ वो इंतज़ार का मौसम भी
वो बारिश में साथ चलते चलते
मेरी धड़कन का रुक रुक के चलना
तुम साथ हो
तो इतरा के मेरे दिल का मचलना
मेरी हर बात में तुम्हारा ज़िक्र है
तुम तो शामिल हो मेरे दिन रात में
मेरे हर काम में
मै जब लैपटाप खोलता हूँ
मेरी फाइल्ज़ में तुम
मैं जब डायरी के कुछ पन्नों को देखता हूँ
मेरी कविता में तुम्हारा चेहरा
और जो मिटा देता हूँ लिखते लिखते
उसमें तो सबसे ज्यादा प्रभाव है तुम्हारा
मेरी किताबों के पन्नों में भी तुम हो
तुम को कुछ पढ़के भी सुनाता था
इस पढ़ने और समझने में मैं खुद ज़्यादा
ही आगे निकल गया
देख ही नही पाया कि तुम अभी पीछे थे
कुछ नाप तोल रहे थे
मेरे आज को
मेरे कल को
मेरी धरोहर को
मेरी पहुँच को
इन सब में मेरे लिए रिश्ते ज़रुरी थे
तुम्हारे लिए कुछ और
सब कुछ मिटा दो
और हाँ अगर ऐसे रहूँ कि जैसे हुआ कुछ नहीं
क्यूँकि तेरे मेरे बीच अब रहा कुछ नहीं
तुम जो मेरी आदत में शुमार हो
दिन चढ़ते ही तुमसे मिलने का खुमार
दिन ढ़लते ही तुमसे मिलने का इंतज़ार
और ऐसा करो
ये सब जज़बात ही खाली करदो
जो तुम संग जुड़े हैं
तुम्हारे लिए आसान है
मूरत बनना
कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं
मेरे लिए भी आसान है
दिल की चोट छिपाना
दिखाना कुछ और
बहुत माहिर हूँ मुखौटा ओढ़ने में
पर दिल जब ज़ार ज़ार रोता है
तो कैसे झुठला दूँगा हर वो ख्वाइश को
वो सपने जो दिखला के छीन लिए
पर मैं बोल किससे रहा हूँ
पत्थर के शहर में
पत्थर की देवी से
सब कुछ टकरा के मुझ पे ही वापिस
बेरुखी के पत्थर बरस रहें हैं
(JSharma)
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